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मेरे शहर में रात कुछ ऐसी होती हैं…

बस यूँ ही
बस यूँ ही
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धीमी हवा में झूलतीं, सफेत बादल सी बहेतीं हैं

कभी कोहरे में छिपतीं, कभी ठंड में सिमटती हैं
बारिश में भिगती कभी तूफान सें कंपकँपातीं हैं….
मेरे शहर में रात कुछ ऐसी होती हैं…

चिन्ताओकी गठरी सर से उतारतीं हैं
सपनोंका पिटारा अपना फिर आरामसें खोलतीं हैं
आसमानी चुनर पें तारोंकी की फूलकारी सजतीं हैं
मेरे शहर में रात कुछ ऐसी होती हैं…
बिस्तरपे लेटकर वह खामोशियाँ सुनती हैं
नींद की गुड़ियाँ पलकोंकी रज़ाई मे सोती हैं
चाँद के छत्तेसे से चाँदनी रसतीं हैं
मेरे शहर में रात कुछ ऐसी होती हैं…
ब्रह्मपिता की घड़ी सें दिन की रेत फिसलती हैं
समय की गागर थोड़ी और छलकती हैं
जिंदगी अपने डायरीमें एक और पन्ना जोड़ती हैं
मेरें शहर में रात कुछ ऐसी होती हैं……
कभी सुहानी, कभी तूफ़ानी ,कभी मस्तानी तो कभी रूहानी..
हर रंग में ढलतीं है, हर रूप में जँचतीं हैं, हर रस में सिंचती है
मेरें शहर में रात कुछ ऐसी होती हैं…
अदाएँ उसकी रोज नयी बात कहतीं हैं
मेरें शहर में रात, कुछ ऐसी होती हैं……
मेरें शहर में रात, कुछ ऐसी ही होती है…..
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